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लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :235
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :978-81-8143-985

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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...

औरत कब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?


कलकत्ता में बसने के शुरू के दिनों में मैंने एक घर किराये पर लिया। घर में कामकाज में हाथ बँटाने के लिए उन दिनों मुझे किसी सहायिका की ज़रूरत थी। मैं कोई परिचारिका खोज रही थी।

बरामदे में मेरी एक मित्र खड़ी थी।

वहाँ से लगभग दौड़ते हुए वह मेरे पास आ पहुंची।

'सुनो, तुम्हारे बगलवाले घर की तरफ़ एक बहू जा रही है, तुम उसी से पूछ देखो ना।'

मुझे अपनी मित्र की बात समझ में नहीं आयी।

'क्या कहा, कौन जा रही है?' मैंने पूछा।

'बहू-'

'बगलवाले घर में कोई शादी-ब्याह है? तुमने उसके दूल्हे को भी देखा?'

मैं बरामदे में चली आयी। चारों तरफ़ जैसा था, वैसा ही दृश्य था। किसी भी घर में कोई अतिरिक्त हलचल नहीं थी। कहीं शहनाई भी नहीं बज रही थी। किसी भी आँगन में दूल्हा-दुल्हन भी नज़र नहीं आये। मेरी मित्र ने ज़ोर का ठहाका लगाया। लेकिन...अप्रैल महीने की पहली तारीख भी नहीं थी जो कोई मुझे बुद्धू बनाता। लेकिन उस दिन मैं सच ही बुद्ध बन गयी थी।

ना, बुद्धू मैं एक दिन में नहीं हुई थी। यह समझने में मुझे कई महीने लगे थे कि जो औरतें दूसरों के घर में काम करती हैं, वे अगर विवाहिता हों तो उन्हें 'बहू' कहा जाता है। उस औरत के दूल्हे या पति से भी किसी का परिचय हो, यह कोई ज़रूरी नहीं है।

'जो पुरुष दूसरों के घर में कामकाज़ करते हैं, वे लोग अगर विवाहित हों तो क्या उन्हें दूल्हा या पति कह कर बुलाया जाता है?'

मेरे सवाल को लोग बेसिर-पैर का कहते हैं। उन्हें मेरा सवाल अजीब लगता है। लेकिन मेरा सवाल तो बेहद सरल है। बेहद सहज! मेरा सवाल समझने में किसी को असुविधा तो नहीं होनी चाहिए। इसके बावजूद मैं किसी को समझा नहीं पाती।

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    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

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