लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
औरत कब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
कलकत्ता में बसने के शुरू के दिनों में मैंने एक घर किराये पर लिया। घर में कामकाज में हाथ बँटाने के लिए उन दिनों मुझे किसी सहायिका की ज़रूरत थी। मैं कोई परिचारिका खोज रही थी।
बरामदे में मेरी एक मित्र खड़ी थी।
वहाँ से लगभग दौड़ते हुए वह मेरे पास आ पहुंची।
'सुनो, तुम्हारे बगलवाले घर की तरफ़ एक बहू जा रही है, तुम उसी से पूछ देखो ना।'
मुझे अपनी मित्र की बात समझ में नहीं आयी।
'क्या कहा, कौन जा रही है?' मैंने पूछा।
'बहू-'
'बगलवाले घर में कोई शादी-ब्याह है? तुमने उसके दूल्हे को भी देखा?'
मैं बरामदे में चली आयी। चारों तरफ़ जैसा था, वैसा ही दृश्य था। किसी भी घर में कोई अतिरिक्त हलचल नहीं थी। कहीं शहनाई भी नहीं बज रही थी। किसी भी आँगन में दूल्हा-दुल्हन भी नज़र नहीं आये। मेरी मित्र ने ज़ोर का ठहाका लगाया। लेकिन...अप्रैल महीने की पहली तारीख भी नहीं थी जो कोई मुझे बुद्धू बनाता। लेकिन उस दिन मैं सच ही बुद्ध बन गयी थी।
ना, बुद्धू मैं एक दिन में नहीं हुई थी। यह समझने में मुझे कई महीने लगे थे कि जो औरतें दूसरों के घर में काम करती हैं, वे अगर विवाहिता हों तो उन्हें 'बहू' कहा जाता है। उस औरत के दूल्हे या पति से भी किसी का परिचय हो, यह कोई ज़रूरी नहीं है।
'जो पुरुष दूसरों के घर में कामकाज़ करते हैं, वे लोग अगर विवाहित हों तो क्या उन्हें दूल्हा या पति कह कर बुलाया जाता है?'
मेरे सवाल को लोग बेसिर-पैर का कहते हैं। उन्हें मेरा सवाल अजीब लगता है। लेकिन मेरा सवाल तो बेहद सरल है। बेहद सहज! मेरा सवाल समझने में किसी को असुविधा तो नहीं होनी चाहिए। इसके बावजूद मैं किसी को समझा नहीं पाती।
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